कुछ दिनों पूर्व फेसबुक पर उनके द्वारा लिखी कुछ किताबों की समीक्षा का पठन किया। मैंने पाया कि समीक्षा जैसे गुरुत्तर
कार्य को जिस शिद्दत से लिखा है उसमें व्याप्त भाव विश्लेषण,व्यापक दृष्टि और निष्पक्षता दिखाई देती है। उनकी अपनी अलग ही पद्धति और भाषा शैली है।समीक्षा में प्रयोगधर्मिता भी है जो अनुसंधान वृति को प्रेरित करती है।
हाड़ोती अंचल के सशक्त हस्ताक्षर जोशी हिंदी और राजस्थानी दोनों भाषाओं में गहरी समझ और पैठ रखते हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य की समस्त विधाओं पर हिंदी और राजस्थानी में लिखित कहानियां, लघु कथाएं, गीत – कविता, व्यंग रचनाएं, उपन्यास, , साक्षात्कार, खण्ड काव्य, सतसई परंपरा पर लिखित
साहित्य,शिक्षा,वास्तुकला, दर्शन आदि साहित्य पर सटीक समीक्षाएं लिखी हैं।
विजय जोशी बताते हैं कि उनकी प्रथम कला-समीक्षा, रिपोर्टपाञ्चजन्य(साप्ताहिक) दिल्ली में 16 मार्च 1986 को प्रकाशित हुई। इससे उनका हौंसला बढ़ता गया और तब से सतत् रूप से समीक्षाएं लिख रहे हैं। देश की विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में आपकी साहित्य समीक्षाओं का प्रकाशन प्रमुखता से किया गया है, जिससे आगे बढ़ने के लिए नई ऊर्जा मिलती गई। अब तक आपके समीक्षाओं की चार कृतियां तीन हिंदी और एक राजस्थानी में प्रकाशित हो चुकी हैं तथा पांचवीं मुद्रण प्रक्रिया में है। यही नहीं आपने अनेक पुस्तकों के लिए भूमिका लेखन कर पुस्तक का महत्व दुगुनित किया है। साहित्यिक संगोष्ठियों- सेमिनारों में आपने पत्र-वाचन भी किया है।
आपकी प्रथम पुस्तक-समीक्षा पद्मा सचदेव द्वारा सम्पादित कथा-संकलन “रातो जगी कथाएँ” पर है और बीकानेर से प्रकाशित नया शिक्षक (त्रैमासिक) के जनवरी-मार्च, 1993 के अंक में प्रकाशित हुई। हिन्दी साहित्य अन्तर्गत सर्व प्रथम समीक्षात्मक पत्र-वाचन 25 दिसम्बर 1995 को ‘डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय ‘विजय’ का रचना संसार’ विषय पर किया जिसका आयोजन काव्य मधुबन संस्था द्वारा सूचना केन्द्र कोटा में किया गया था। राजस्थानी साहित्य के अन्तर्गत सर्व प्रथम समीक्षात्मक पत्र-वाचन 5 सितम्बर 2004 को ‘राजस्थानी साहित्य को बदलतो रुझाण’ विषय पर किया जिसका आयोजन राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर की ओर से आँचलिक रचनाकार समारोह, हाड़ौती अंचल, सेन्ट्रल अकादमी, दादाबाड़ी,कोटा में किया गया था।
कथा साहित्य
समीक्षा ग्रंथों सहित हिन्दी और राजस्थानी में अब तक आपकी एक दर्जन से अधिक पुस्तकें – दो हिन्दी उपन्यास – चीख़ते चौबारे (2004), रिसते हुए रिश्ते (2009), पाँच हिन्दी कहानी संग्रह – ख़ामोश गलियारे (1996), केनवास के परे (2000), कुहासे का सफ़र (2005), बिंधे हुए रिश्ते (2006), सुलगता मौन (2020), और दो राजस्थानी कहानी संग्रह- मंदर में एक दन (1999), आसार (2004), एक राजस्थानी अनुवाद- पुरवा की उडीक (2016), एक राजस्थानी गद्य विविधा – भावाँ की रामझोळ (2022), प्रकाशित हो चुकी हैं। आपके साहित्य का मूल्यांकन करते हुए तीन समीक्षा ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं वहीं विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा तीन शोधार्थियों को पीएच.डी. तथा एम. फिल. की उपाधि प्रदान की गई है। आपको समय-समय पर हिन्दी और राजस्थानी साहित्य की सेवा हेतु विभिन्न संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत और सम्मानित किया गया है।
परिचय
आपका जन्म झालावाड़ में रमेश वारिद और माता प्रेम वारिद के परिवार में एक जनवरी 1963 को हुआ। आपने विज्ञान (वनस्पति शास्त्र), साहित्य (हिन्दी) और शिक्षा (निर्देशन अर परामर्श) में अधिस्नातक तथा पत्रकारिता-जनसंचार में स्नातक शिक्षा प्राप्त की। आप शिक्षा विभाग में जीव विज्ञान विषय के अध्यापन कार्य से सेवानिवृत्त हुए हैं। बचपन से आपको कला-संगीत में चित्रकारी करने की अभिरुचियाँ रही हैं। आगे चलकर यही अभिरुचि कला सन्दर्भित आलेख तथा कला- समीक्षा की ओर अग्रसर हुई। आपके प्रकृति चित्रण, राजस्थानी परम्परागत शैलियों के साथ आधुनिक शैली की कला-कृतियाँ प्रदर्शित होती रहीं हैं।