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कुंभकार प्रजापतियों की देवी माँ शीतला माताजी– शीतला सातम पर विशेष।

डूंगला प्रेस रिपोर्टर‌ ,, प्रवीण मेहता

 

 

 

स्कन्ध पुराण के अनुसार शीतला माता की उत्पति प्रजापति ब्रह्माजी से हुई थी। इनका स्वभाव शीतल होने से इसे शीतलादेवी नाम से सुशोभित किया गया था। इनके एक हाथ में झाड़ू और दूसरे हाथ में कलश हैं। झाड़ू व्याधियों को दूर करने व कलश का शीतलजल शीतलता प्रदान करने का प्रतीक है। इनकी सवारी गर्डम (अर्थात गधा) हैं। माँ शीतला का वाहन गर्डम होने का जिक्र भी मिलता हैं, जब शीतला पृथ्वी पर आई तो शिवजी के पसीने से उत्पन्न ज्वरासुर को भी अपने साथ लाई थी। उसके द्वारा बच्चों को चोट पहुचाने से क्रोधित हो गई और माँ शीतला ने अपने श्राप से ज्वरासुर को गर्डम (गधा) बना दिया था। और इसे अपना वाहन बनाया, मानव शरीर में चेचक, लालदाने होने पर घर में माता का आगमन होने का प्रतीक माना जाता हैं। और शीतल पदार्थों का अधिकतम उपयोग किया जाता हैं इससे जुड़ी एक कहानी भी प्रचलित हैं, जब माता शीतला पृथ्वी पर वृद्धा रूप में देखने आई कि उसकी कौन करता और पूजा कहाँ कहां होती हैं। तब किसी ने उस पर उबला हुआ चावल का पानी डाल दिया। जिससे उसके शरीर पर फफोले हो गए और जलन से कष्ट भी हो रहा था। वो मदद को पुकार रहीं थीं। किसी ने उसकी मदद नहीं की, एक कुम्हारिन ने उसे अपने घर में बिठाया और मिट्टी बर्तनों के उपयोग में आनेवाला मिट्टी भरा शीतल जल उस पर डाला, मटके का ठंडा पानी भी उस पर डाला, पीने को ठंडा पानी, तथा खाने को दही, छाछ की राबड़ी दी। इससे उसकी जलन कम हो गई व उसे बहुत राहत मिली।
इसके बाद कुम्हारिन ने कहा, आपके बाल बिखरे हैं, मैं आपके बाल सही कर देती हूं, उसके बाल संवारते वक्त सिर के पिछे एक और आंख देखी तो कुम्हारिन घबरा गई। तो शीतला ने कहा, मत डर, मैं शीतला देवी हूं, और अपने मुलरूप में प्रकट हो गई। वो अतिसुन्दर वस्त्रों व क़ीमती आभूषणों से सुसज्जित थी।कुम्हारिन ने कहा, माँ मै आपको कहाँ बिठाउ, मेरे यहां तो मिट्टी ही मिट्टी है। तब शीतला घर में खडे गर्डम (गधे) पर बैठ गई, और कहा मै तुमसे बहुत प्रसन्न हूं। कोई वरदान मांग ले, मैं दे दूंगी, कुम्हारिन ने कहा, मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस आप यहीं रहे, और सभी के कष्ट दूर करे।
माँ शीतला ने कुम्हारिन को तथास्तु कह दिया, और उसके निस्वार्थ भाव से की गई सेवा, सत्कार और सभी के परोपकार की भावना से अत्यधिक प्रसन्न हुई और अपनी सेवा का अधिकार केवल कुम्हार, प्रजापति समाज को दिया, तभी से माँ शीतला पृथ्वी पर निवास कर रहीं हैं। और लोगों के कष्टों को दूर करती हैं।आज भी माँ शीतला की पूजा करने का अधिकार कुम्हार प्रजापति समाज के पास हैं, अपनी दयालू प्रवृति और निस्वार्थ सेवाभाव से माँ शीतला पृथ्वी पर विराजमान हैं। और होली से सात दिनों तक माँ शीतला पर शीतलजल चढ़ा कर माता को स्नान कराया जाता हैं। कृष्ण पक्ष की सप्तमी को बनाये भोग, दही, छाछ राबड़ी, आदि का अगले दिन अष्टमी को भोग लगाया जाता हैं। और माँ की पूजा की जाती है। इस दिन परिवार के सभी दही, छाछ से बनी वस्तुओ- मक्काघाट, चावल का ओलिया, ज्वार बाजरे की राबड़ी, व ठंडे भोजन को प्रसाद के रूप में खाया और खिलाया जाता है। इसका अनुशरण आज भी सभी करते हैं माँ शीतला की अनेक कहानियां प्रचलित हैं, जो माँ सीतला की कथाओ में मिलता हैं, माँ शीतला को माँ पार्वती का ही अवतार माना जाता हैं। इसलिए इसे कुम्हार प्रजापतियों की कुलदेवी भी माना जाता हैं।

शीतला माता एक प्रसिद्ध हिन्दू देवी हैं। इनका प्राचीनकाल से ही बहुत अधिक माहात्म्य रहा है। स्कंद पुराण में शीतला देवी का वाहन गर्दभ बताया गया है। ये हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण करती हैं। इन्हें चेचक आदि कई रोगों की देवी बताया गया है। इन बातों का प्रतीकात्मक महत्व होता है। चेचक का रोगी व्यग्रता में वस्त्र उतार देता है। सूप से रोगी को हवा की जाती है, झाडू से चेचक के फोड़े फट जाते हैं। नीम के पत्ते फोडों को सड़ने नहीं देते। रोगी को ठंडा जल प्रिय होता है अत: कलश का महत्व है। गर्दभ की लीद के लेपन से चेचक के दाग मिट जाते हैं। शीतला-मंदिरों में प्राय: माता शीतला को गर्दभ पर ही आसीन दिखाया गया है।[1] शीतला माता के संग ज्वरासुर- ज्वर का दैत्य, ओलै चंडी बीबी – हैजे की देवी, चौंसठ रोग, घेंटुकर्ण- त्वचा-रोग के देवता एवं रक्तवती – रक्त संक्रमण की देवी होते हैं। इनके कलश में दाल के दानों के रूप में विषाणु या शीतल स्वास्थ्यवर्धक एवं रोगाणु नाशक जल होता है।कुछ लोग शताक्षी देवी को भी शीतला देवी कह कर संबोधित करते हैं [2]

स्कन्द पुराण में इनकी अर्चना का स्तोत्र शीतलाष्टक के रूप में प्राप्त होता है। ऐसा माना जाता है कि इस स्तोत्र की रचना भगवान शंकर ने लोकहित में की थी। शीतलाष्टक शीतला देवी की महिमा गान करता है, साथ ही उनकी उपासना के लिए भक्तों को प्रेरित भी करता है। शास्त्रों में भगवती शीतला की वंदना के लिए यह मंत्र बताया गया है:

वन्देऽहंशीतलांदेवीं रासभस्थांदिगम्बराम्।।मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्।।
अर्थात

गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाडू तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तक वाली भगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं। शीतला माता के इस वंदना मंत्र से यह पूर्णत: स्पष्ट हो जाता है कि ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में मार्जनी झाडू होने का अर्थ है कि हम लोगों को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए। कलश से हमारा तात्पर्य है कि स्वच्छता रहने पर ही स्वास्थ्य रूपी समृद्धि आती है।[3]

मान्यता अनुसार इस व्रत को करनेसे शीतला देवी प्रसन्‍न होती हैं और व्रती के कुल में दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोडे, नेत्रों के समस्त रोग, शीतलाकी फुंसियों के चिन्ह तथा शीतलाजनित दोष दूर हो जाते हैं।[1]

जय जय माता शीतला तुमही धरे जो ध्यान। होय बिमल शीतल हृदय विकसे बुद्धी बल ज्ञान ॥घट घट वासी शीतला शीतल प्रभा तुम्हार। शीतल छैंय्या शीतल मैंय्या पल ना दार ॥

चालीसा

जय जय श्री शीतला भवानी। जय जग जननि सकल गुणधानी ॥गृह गृह शक्ति तुम्हारी राजती। पूरन शरन चंद्रसा साजती ॥

विस्फोटक सी जलत शरीरा। शीतल करत हरत सब पीड़ा ॥
मात शीतला तव शुभनामा। सबके काहे आवही कामा ॥

शोक हरी शंकरी भवानी। बाल प्राण रक्षी सुखदानी ॥सूचि बार्जनी कलश कर राजै। मस्तक तेज सूर्य सम साजै ॥

चौसट योगिन संग दे दावै। पीड़ा ताल मृदंग बजावै ॥
नंदिनाथ भय रो चिकरावै। सहस शेष शिर पार ना पावै ॥

धन्य धन्य भात्री महारानी। सुर नर मुनी सब सुयश बधानी ॥ज्वाला रूप महाबल कारी। दैत्य एक विश्फोटक भारी ॥

हर हर प्रविशत कोई दान क्षत। रोग रूप धरी बालक भक्षक ॥
हाहाकार मचो जग भारी। सत्यो ना जब कोई संकट कारी ॥

तब मैंय्या धरि अद्भुत रूपा। कर गई रिपुसही आंधीनी सूपा ॥विस्फोटक हि पकड़ी करी लीन्हो। मुसल प्रमाण बहु बिधि कीन्हो ॥

बहु प्रकार बल बीनती कीन्हा। मैय्या नहीं फल कछु मैं कीन्हा ॥
अब नही मातु काहू गृह जै हो। जह अपवित्र वही घर रहि हो ॥

पूजन पाठ मातु जब करी है। भय आनंद सकल दुःख हरी है ॥अब भगतन शीतल भय जै हे। विस्फोटक भय घोर न सै हे ॥

श्री शीतल ही बचे कल्याना। बचन सत्य भाषे भगवाना ॥
कलश शीतलाका करवावै। वृजसे विधीवत पाठ करावै ॥

विस्फोटक भय गृह गृह भाई। भजे तेरी सह यही उपाई ॥तुमही शीतला जगकी माता। तुमही पिता जग के सुखदाता ॥

तुमही जगका अतिसुख सेवी। नमो नमामी शीतले देवी ॥
नमो सूर्य करवी दुख हरणी। नमो नमो जग तारिणी धरणी ॥

नमो नमो ग्रहोंके बंदिनी। दुख दारिद्रा निस निखंदिनी ॥श्री शीतला शेखला बहला। गुणकी गुणकी मातृ मंगला ॥

मात शीतला तुम धनुधारी। शोभित पंचनाम असवारी ॥
राघव खर बैसाख सुनंदन। कर भग दुरवा कंत निकंदन ॥

सुनी रत संग शीतला माई। चाही सकल सुख दूर धुराई ॥कलका गन गंगा किछु होई। जाकर मंत्र ना औषधी कोई ॥

हेत मातजी का आराधन। और नही है कोई साधन ॥
निश्चय मातु शरण जो आवै। निर्भय ईप्सित सो फल पावै ॥

कोढी निर्मल काया धारे। अंधा कृत नित दृष्टी विहारे ॥बंधा नारी पुत्रको पावे। जन्म दरिद्र धनी हो जावे ॥

सुंदरदास नाम गुण गावत। लक्ष्य मूलको छंद बनावत ॥
या दे कोई करे यदी शंका। जग दे मैंय्या काही डंका ॥

कहत राम सुंदर प्रभुदासा। तट प्रयागसे पूरब पासा ॥ग्राम तिवारी पूर मम बासा। प्रगरा ग्राम निकट दुर वासा ॥

अब विलंब भय मोही पुकारत। मातृ कृपाकी बाट निहारत ॥
बड़ा द्वार सब आस लगाई। अब सुधि लेत शीतला माई ॥

चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की सप्तमी अष्टमी को शीतला माता का पर्व मनाया जाता है। इसे बसौड़ या बसौरा भी कहते हैं। शीतला सप्तमी को भोजन बनाकर रखा जाता है और दूसरे दिन उसी भोजन को ही खाया जाता है। इस दौरान विशेष प्रकार का भोजन बनाया जाता है। कहते हैं कि इस ‍देवी की पूजा से चेचक का रोग ठीक होता है। आओ जानते हैं कि कौन है देक्ष शीतला माता।

स्कंद पुराण अनुसार देवी शीतला चेचक जैसे रोग की देवी हैं, यह हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण किए होती हैं तथा गर्दभ की सवारी पर अभय मुद्रा में विराजमान हैं। शीतला माता के संग ज्वरासुर ज्वर का दैत्य, हैजे की देवी, चौंसठ रोग, घेंटुकर्ण त्वचा रोग के देवता एवं रक्तवती देवी विराजमान होती हैं इनके कलश में दाल के दानों के रूप में विषाणु या शीतल स्वास्थ्यवर्धक एवं रोगाणुनाशक जल होता है।
कहते हैं यह शक्ति अवतार हैं और भगवान शिव की यह जीवनसंगिनी है। पौराणिक कथा के अनुसार माता शीतला की उत्पत्ति भगवान ब्रह्मा से हुई थी। देवलोक से धरती पर माता शीतला अपने साथ भगवान शिक के पसीने से बने ज्वरासुर को अपना साथी मानकर लाईं थी। तब उनके हाथों में दाल के दाने भी थे। उस समय के राजा विराट ने माता शीतला को अपने राज्य में रहने के लिए स्थान नहीं दिया तो माता क्रोधित हो गई। उस क्रोध की ज्वाला से राजा की प्रजा को लाल लाल दाने निकल आए और लोग गर्मी के मारे मरने लगे। तब राजा विराट ने माता के क्रोध को शांत करने के लिए ठंडा दूध और कच्ची लस्सी उन पर चढ़ाई। तभी से हर साल शीला अष्‍टमी पर लोग मां का आशीर्वाद पाने के लिए ठंडा भोजन माता को चढ़ाने लगे।
स्कन्द पुराण में इनकी अर्चना स्तोत्र को शीतलाष्टक के नाम से व्यक्त किया गया है। मान्यता है कि शीतलाष्टक स्तोत्र की रचना स्वयं भगवान शिव जी ने लोक कल्याण हेतु की थी। इस पूजन में शुद्धता का पूर्ण ध्यान रखा जाता है। इस विशिष्ट उपासना में शीतलाष्टमी के एक दिन पूर्व देवी को भोग लगाने के लिए बासी खाने का भोग बसौड़ा उपयोग में लाया जाता है।

शीतला माता करती हैं गधे की सवारी

शीतला माता का स्वरूप अन्य देवियों से एकदम अलग है। देवी मां गधे की सवारी करती हैं। शीतला माता के हाथों में कलश, झाड़ू, सूप यानी सूपड़ा रहता है। देवी मां नीम के पत्तों से बनी माला धारण करती हैं। कलश, झाड़ू, सूप और नीम ये सभी चीजें साफ-सफाई से संबंधित हैं। देवी का संदेश यही है कि व्यक्ति हर स्थिति में साफ-सफाई का ध्यान रखना चाहिए। जो लोग गंदगी में रहते हैं, खुद के शरीर की सफाई नहीं करते हैं, उन्हें मौसमी बीमारियां बहुत जल्दी होने की संभावनाएं रहती हैं। नीम हमारी त्वचा के लिए फायदेमंद होता है। नीम के सेवन से हमारे स्वास्थ्य को कई लाभ मिलते हैं, लेकिन ध्यान रखें नीम का उपयोग किसी विशेषज्ञ डॉक्टर से परामर्श करने के बाद ही करना चाहिए।

शीतला माता को क्यों लगाते हैं ठंडे खाने का भोग?

शीतला सप्तमी-अष्टमी दो ऋतुओं के संधिकाल में आती है। अभी शीत ऋतु के जाने का और ग्रीष्म ऋतु के आने का समय है, इसे ही संधिकाल कहा जाता है। ऋतुओं के संधिकाल में स्वास्थ्य संबंधित सावधानी न रखी जाए तो मौसम बहुत जल्दी हमें बीमार कर सकता है। इस समय खान-पान का विशेष ध्यान रखना चाहिए। इन दो दिनों में शीतला माता के लिए व्रत किया जाता है। ये व्रत करने वाले भक्त बासी यानी ठंडा खाना ही खाते हैं। शीतला माता को ठंडे खाने का ही भोग लगाते हैं। ये व्रत करने वाले लोग शीतला माता के प्रसाद के रूप में ठंडा खाना ग्रहण करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस समय में ठंडा खाना खाने से उन्हें ऋतु परिवर्तन से होनी वाली मौसमी बीमारियां जैसे सर्दी-कफ, फोड़े-फूंसी, आंखों से संबंधित और त्वचा संबंधी बीमारियां होने की संभावनाएं कम हो जाती हैं।

ये है शीतला माता से जुड़ी कथा

ऐसा माना जाता है कि पुराने समय में एक दिन किसी गांव के लोगों ने देवी मां को गर्म खाने का भोग लगा दिया था, जिससे देवी मां का मुंह जल गया और वह क्रोधित हो गई थीं। देवी के क्रोध से गांव में आग लग गई, लेकिन एक बूढ़ी औरत का घर आग से बच गया। अगले दिन गांव के लोगों को बूढ़ी औरत ने बताया कि उसने शीतला माता को ठंडे खाने का भोग लगाया था। तभी से शीतला माता को ठंडे खाने का भोग लगाने की परंपरा शुरू हुई है।

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