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बात मन की….अब तो जागरूक हो जाए अन्यथा कुदरती व्यवस्था की अनदेखी के परिणाम विनाशकारी

समलैगिंक सम्बन्धों को विवाह की मान्यता दिलाने की मांग दुर्भाग्यपूर्ण, कैसे बचेगा परिवार

बात मन की- निलेश कांठेड़

कुदरत की व्यवस्थाओं को बदलने के हम नाकाम प्रयास करते रहते है, चोट दर चोट खाते है, नुकसान उठाते है फिर भी पता क्यों हम बार-बार कुदरत से भिड़ते रहते है। कुदरत से भिड़न्त का ही एक रूप इन दिनों समलैगिंक सम्बन्धों को शादी के समान मान्यता प्रदान करने की मुहिम के रूप में देख पा रहे है। हमारे देश का सर्वोच्च न्यायालय इन दिनों इस मसले की सुनवाई कर रहा है और उसका आने वाला फैसला ये तय करेगा कि समलैगिंक विवाह को वैधानिक मान्यता मिल सकती है या नहीं। सर्वोच्च न्यायालय का क्या फैसला आएगा ये अभी भविष्य के गर्भ में है लेकिन इस तरह की बात उठाना और इसके लिए देश के कुछ नामी-गिरामी अधिवक्ताओं द्वारा पैरेवी करना हमारी सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था के लिए चिंतनीय पहलू है। न्यायालय अपना कार्य करेगा और उसके फैसले का सम्मान करना भी हमारा कर्तव्य होगा लेकिन चिंतन इस बात का करना चाहिए कि कभी समलैगिंक सम्बन्धों की चर्चा भी जिस देश-समाज में करना बहुत दुष्कर कार्य माना जाता था वहां *आज समलैगिंक सम्बन्धों की पैरेवी करने वालों का हौंसला इस कदर बुलन्द हो गया है कि वह देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था के समक्ष साथ रहने के कृत्य को विवाह जैसे पवित्र संस्कार के समकक्ष वैधानिक मान्यता दिलाने की याचिका लगा रहे है।

ये कोई सामान्य याचिका नहीं बल्कि इस पर आने वाला फैसला पूरे सामाजिक सिस्टम और परिवार नामक संस्था पर गहरा असर डालने वाला है। भारत जैसे देश में समलैगिंक सम्बन्धों को अपराध नहीं मानने का आदेश होने के बाद भी अब तक इसे विवाह संबंध रूप में मान्यता नहीं मिल पाई है। *न्यायालय चाहे जो फैसला सुनाए पर फैसले से पूर्व ही देश में जिस कदर इस तरह के प्रस्ताव का विरोध हो रहा है वह बताता है कि न्यायिक निर्णय जो भी हो लेकिन सामाजिक स्तर पर इसे मान्यता देने के लिए हमारा समाज कदापि तैयार नहीं होने वाला।* विरोध कोई एक समाज या संस्था नहीं कर रही बल्कि धर्मगुरूओं से लेकर सामाजिक व महिला संगठन सभी कर रहे है। ऐसा कोई समाज व धर्म नहीं है जो समलैगिंक में विवाह सम्बन्धों को जायज मानता हो। *समलैगिंक सम्बन्धों को विवाह के रूप में मान्यता दिलाने का प्रयास करने वाले भी इस बात का जवाब शायद नहीं दे पाएंगे कि क्या ऐसा करके परिवार नामक संस्था को जीवित रखा जा सकेगा।* जब लड़का किसी लड़के से और लड़की किसी लड़की को अपना जीवनसाथी बनाने लग जाएंगे तो संतान कहां से आएगी और *परिवार, समाज व राष्ट्र कहां जाएगा। पशु और इंसान में क्या विभेद रह जाएगा* । क्या ऐसा करना दो विपरीत लिंगी स्त्री एवं पुरूष के रूप में बनाई गई प्राकृतिक व कुदरती व्यवस्था की अनदेखी करना नहीं होगा। इस कुकृत्य की पैरेवी करने में जुटे कुछ लोग कभी उनके परिवार या मित्र के घर में ऐसी नौबत आ जाए तो क्या स्वीकार करने का साहस जुटा पाएंगे। *समलैगिंक सम्बन्धों को विवाह के रूप में मान्यता प्रदान करने की मांग उठाना ही हमारे बौद्धिक विनाश का सूचक है।* बुद्धि का उपयोग हम मानव कल्याण के लिए नहीं कर प्रकृति की व्यवस्थाओं को बिगाड़ने के लिए करेंगे तो सर्वनाश से हमे कोई नहीं बचा पाएगा। संवैधानिक व्यवस्थाओं का पूर्ण सम्मान करते हुए भी हमे हर स्तर पर इस जागरूकता मुहिम को बढ़ावा देना होगा और आमजन को जागरूक करना होगा। ईश्वर करें सभी को सद्बुद्धि आए और ऐसा कोई वातावरण इस देश व समाज में निर्मित नहीं हो जो समलैगिंक सम्बन्धों को प्रोत्साहित करने वाला हो।

RISHABH JAIN
Author: RISHABH JAIN

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