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डूंगला में खाकल बावजी मंदिर के पास आज गवरी नृत्य आयोजन, गवरी देखने ग्रामीणों की भीड़ उमड़ रही

डूंगला में खाकल बावजी मंदिर के पास आज गवरी नृत्य आयोजन, गवरी ग्रामीणों की भीड़ उमड़ रही
डूंगला । डूंगला कस्बे के खाकल बावजी मंदिर के सामने आज गवरी नृत्य का आयोजन हो रहा है जिसको देखने के लिये भारी संख्या ग्रामीणों की भीड़ उमड़ने का अंदाजा है।

मेवाड़ का प्रसिद्ध गैर नृत्य का आयोजन किया गया । मेवाड़ क्षेत्र में भील जनजाति का गैर नृत्य प्रसिद्ध है। इस नृत्य को सावन भादो माह में किया जाता है। इसमें मांदल और थाली के प्रयोग के कारण इसे राई नृत्य के नाम से भी जाना जाता है। इसे केवल पुरुषों के द्वारा किया जाता है। बादन संवाद , प्रस्तुतीकरण और लोक- संस्कृति के प्रतिको में मेवाड़ की गवरी निराली है। गवरी का उदभव शिव-भस्मासुर की कथा से माना जाता है। गवरी सवा महीने तक खेली जाती है। इसमें भील संस्कृति की प्रमुखता रहती है। यह पर्व आदिवासी जाति पर पौराणिक तथा सामाजिक प्रभाव की अभिव्यक्ति है। गवरी में मात्र पुरुष पात्र होते हैं। इसके खेलो में गणपति काना-गुजरी, जोगी, लाखा बंजारा, शिव पार्वती का खेल होते हैं। इसमें शिव को पुरिया कहा जाता है।

राजस्थान के मेवाड़ संभाग में भील समाज की ओर से पारंपरिक ‘गवरी नृत्य’ का मंचन किया जाता है. बताया जाता है कि इस जाति के प्रत्येक पुरुष को जीवन में एक बार गवरी में भाग लेना जरूरी होता है. इसमें शिव और पार्वती से जुड़ी कथाओं के बारे में बताया जाता है. दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी बाहुल्य मेवाड़ अंचल की रंग रंगीली संस्कृति सदैव से आकर्षण का केंद्र रही है. यहां की लोक कलाओं और सजीलें लोकनृत्य देश के अलावा सात समंदर पार से आने वाले सैलानियों को भी सम्मोहित करती हैं. लोक संस्कृति के इन्हीं नायाब अंदाजों में से एक है, आदिवासी भील समाज द्वारा किया जाने वाला गवरी नृत्य. जिसकी धूम इन दिनों मेवाड़ के लोगों को अपना दीवाना बना रही है.

मेवाड़ में कब से शुरू हुआ गवरी डांस
रक्षाबंधन के दूसरे दिन सें शुरु होने वाले आदिवासी समाज के लोकनृत्य गवरी इन दिनों पूरे शबाब पर दिखाई देता है. भगवान शिव और पार्वती के खेल के रूप में पूरे सवा महीने किए जाने वाले गवरी नृत्य में आदिवासी लोक कलाओं और लोकानुरंजन की सौंधी महक बरबस ही लोगों के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है. दरअसल आदिवासी भील समाज में पार्वती को बहन-बेटी की तरह मानते हैं और समाज में मान्यता हैं कि भादो महीने में भगवान शिव के साथ माता पार्वती धरती पर भ्रमण के लिए आती हैं. ऐसे में गवरी नृत्य के विविध नाट्यों के द्वारा आदिवासी भील समाज के लोग उन्हें खुश करने के लिए इस नृत्य को करते है.

गवरी नृत्य’ के आयोजन के पीछे वजह
गवरी का आयोजन उन इलाकों में होता है, जहां गवरी कलाकारों की बहन- बेटीयां ब्याही जाती हैं. पूरे सवा महीने तक चलने वाले गवरी के इस आयोजन में कलाकार कड़े नियम और व्रतों का पालन करतें है. जिसके तहत ये सभी कलाकार पूरे सवा महीने तक ना तो अपने घर जाते हैं और ना ही हरी सब्जियों का सेवन करते हैं. यही नहीं इस दौरान शराब सेवन और अन्य नशीली वस्तुओं का उपयोग पूरी तरह निषेध रहता है.

आदिवासी कलाकार देते हैं संदेश
गवरी के आयोजन में महज मनोरंजन ही सीमित नहीं होता, बल्कि इस नृत्य के माध्यम सें आदिवासी कलाकार महिला सशक्तीकरण, पर्यावरण संरक्षण जैसे कई संदेश भी कहानियों के मंचन के दौरान देते हैं.

यही वजह है कि आदिवासी भील समाज के इस मंचन का गवाह बनने सर्वसमाज और विभिन्न आयुवर्ग के लोग पहुंचते हैं.

गवरी क्या है (What Is Gavari Meaning In Hindi)

जनसंचार के लोक माध्यम गवरी में लोक संस्कृति को प्रदर्शित करती हुई कई नृत्य नाटिकाएँ होती हैं. वादन, संवाद व प्रस्तुती करण के आधार पर मेवाड़ की गवरी सबसे अलग हैं. ये नृत्य नाटिकाएँ पौराणिक कथाओं, लोकगाथाओं एवं लोक जीवन की कई प्रकार की झांकियों पर आधारित होती हैं.

. गवरी के समय सारा वातावरण भक्तिमय हो जाता हैं. सभी गहरी आस्था में डूब जाते हैं. सामाजिक चेतना का आभास होता हैं. गवरी के माध्यम से हमारी लोकगाथाएँ जनता तक पहुचती हैं, जो लोग इन गाथाओं से अनभिज्ञ हैं, उनको इसकी जानकारी प्राप्त होती हैं. और जनता तक एक सकारात्मक संदेश इसके माध्यम से पहुचता हैं.

गवरी नृत्य की मान्यता व इतिहास (Recognition and history of Gawari dance)

गवरी नाम पार्वती के गौरी से लिया गया हैं. भील शिवजी के परम भक्त होते हैं तथा इन्हें अपना आराध्य देव मानते हैं उन्ही के सम्मान में गवरी मनाते हैं. दरअसल गवरी न सिर्फ एक नृत्य हैं बल्कि यह गीत संगीत वादन तथा नृत्य का सामूहिक स्वरूप हैं. इसकी गिनती राजस्थान के मुख्य लोक नृत्यों में की जाती हैं. तथा इन्हें लोक नाट्यों का मेरुनाट्य भी कहा जाता हैं.

भील समुदाय का यह धार्मिक उत्सव हैं जो वर्षा ऋतू में भाद्रपद माह में चालीस दिनों तक निरंतर चलता हैं. जिसमें सभी आयु वर्ग के लोग सम्मिलित होते हैं. गाँव के चौराहे में खुले स्थान पर इसका आयोजन किया जाता हैं. गवरी की मान्यता भगवान शिव और भस्मासुर राक्षस की कथा से जुड़ी हुई हैं.

स्थानीय मान्यताओं के अनुसार कहते हैं जब भस्मासुर ने शिवजी के कड़े को प्राप्त कर उन्हें समाप्त करना चाहा तो उस समय विष्णु जी मोहिनी रूप धर आए तथा उन्होंने अपने रूप सौन्दर्य में असुर को फसाकर मार दिया. अपने आराध्य के प्रति सच्ची श्रद्धा को प्रकट करने तथा नई पीढ़ी को अतीत से जुड़े संस्मरण याद दिलाने के लिए गवरी का नृत्य किया जाता हैं.

गवरी में उपासक, आयोजक एवं अभिनेता केवल भील ही होते हैं. भीलों की एकता, दक्षता एवं ग्रामीण जीवन और आदिम जातीय जीवन के सम्बन्धों का परिचय इस नृत्य में देखने को मिलता हैं. जानने योग्य बात यह हैं कि इसमें स्त्रियाँ भाग नहीं लेती हैं पुरुष ही स्त्रियों के वस्त्र धारण कर उनका अभिनय करते हैं.

इस नृत्य में चार प्रकार के पात्र होते हैं शिव पार्वती व मानव, दानव और पशु पात्र. प्रत्येक भील समुदाय के व्यक्ति का यह कर्तव्य माना जाता हैं कि वह इस उत्सव में भाग ले. गवरी 40 दिनों तक किसी एक स्थान विशेष पर आयोजित न होकर घूम घूमकर भिन्न भिन्न स्थानों पर खेली जाती हैं. तथा अभिनय करने वाले पात्र चालीस दिन तक अपनी वेशभूषा को नहीं उतारते हैं.

पात्र

मानव पात्रः बुढ़िया, राई, कूट-कड़िया, कंजर-कंजरी, मीणा, नट, बणिया, जोगी, बनजारा-बनजारिन तथा देवर-भोजाई
दानव पात्रः भंवरा, खडलियाभूत, हठिया, मियावाड़।
पशु पात्रः सुर (सुअर), रीछड़ी (मादा रीछ), नार (शेर) इत्यादि।

गवरी की शुरुआत

समुदाय के लोग उत्सव से पूर्व गौरी के देवरे से पाती अर्थात पत्ते मंगाते हैं. जिसका आशय यह हैं कि देवी से गवरी को खेलने की अनुमति मांगी जाती हैं. पाती के साथ ही माँ की पूजा अर्चना कर उनसे आशीर्वाद लिया जाता हैं कहते हैं कि पूजा स्थल पुजारी में जब देवी प्रविष्ट होती हैं तब उनसे अनुमति लेकर गवरी की शुरुआत करने परम्परा हैं.

रोचक बाते

  • गवरी के चालीस दिन तक भील अपने घर नहीं आते हैं.
  • वे एक वक्त का भोजन करते हैं तथा नहाते नहीं हैं.
  • चालीस दिनों तक हरे साग सब्जी तथा मांस आदि का सेवन नहीं किया जाता हैं.
  • एक गाँव से दूसरे गाँव बिना जूते के जाकर वहां नाचते हैं.
  • एक गाँव के भील गवरी में उसी गाँव जाएगे जहाँ उसके गाँव की बेटी का ससुराल हो.

गवरी का समापन

40 दिनों तक चलने वाले गवरी नृत्य का समापन भी परम्पराओं के अनुसार ही किया जाता हैं. अंतिम दिन को गड़ावण-वळावण कहा जाता हैं. गड़ावण वह दिन होता हैं जब माता पार्वती की मूर्ति को बनाया जाता हैं तथा वळावण के दिन इसे विसर्जित कर दिया जाता हैं.

गड़ावण के दिन बस्ती के लोग गाँव के कुम्हार के पास जाते हैं तथा माँ पार्वती की मूर्ति बनवाते हैं. इस मूर्ति को ढोल नगाड़े तथा नृत्य करते घोड़े पर बनी पार्वती जी की मिटटी की मूर्ति को गाँव में फेरी लगाने के बाद देवरे ले जाया जाता हैं. जहाँ रात भर गवरी खेली जाती हैं. वळावण के दिन नजदीकी जल स्रोत में विसर्जन के बाद सभी स्नान कर नयें वस्त्र धारण करते है जिन्हें स्थानीय भाषा में पहरावनी कहते हैं. ये वस्त्र सगे सम्बन्धियों द्वारा लाए जाते हैं.

गवरी नृत्य के दौरान वेशभूषा

गाँवों में अच्छी बरसात की कामना को लेकर गवरी नृत्य शुरू किया जाता हैं, अगले सवा माह तक चलने वाले इस नृत्य के कार्यक्रमों के दौरान गौरी शंकर व कई देवी देवताओं का पूजन किया जाता है तथा सर्वकाम सिद्धि की कामना की जाती हैं.

 

Darshan-News
Author: Darshan-News

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