भारत की वसुंधरा ने समय – समय पर ऐसे महापुरुषों को जन्म दिया जिन्होंने अपनी साधना तथा तप द्वारा जनमानस पर स्थायी प्रभाव छोड़ा। ऐसे महापुरुषों की श्रेणी में अध्यात्म साधना के शिखर पुरुष आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज का नाम भी लिखा जाएगा।आचार्य श्री अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के रूप में संघ समाज और देश के गौरव के प्रतीक थे। अपने जीवन में समाज और राष्ट्र का पथ – प्रदर्शन किया।
*जन्म* : आपकी माताजी श्रीमती तीज कुमारी जी को एक मध्यरात्रि में एक अद्भुत स्वप्न में जिसमें दिव्य विमान दृष्टिगत हुआ और अत्यंत ही मानसिक शांति और सुख का अनुभव हुआ।अपने पति श्रीमान जीवनसिंह जी बरडिया को सपने की बात बताई। स्वप्न फल बताने वालों से जानकारी निकलवाई। ज्ञात हुआ कि एक महान पुण्यवान पुत्र की प्राप्ति होने वाली है तुम भाग्यशाली जननी उस पुत्र की रहोगी। आने वाला जीव मानव जगत की सेवा करेगा, जीवो को अभय दान देगा, जन-जन में धर्म की रोशनी को बढ़ाएगा । यह सब सुन पूरा परिवार खुशहाल माहौल में समय बिता रहा था और वह शुभ घड़ी विक्रम संवत 1988 की कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी धनतेरस ( 8 नवंबर 1931) को बरडिया दंपति के घर आंगन उदयपुर नगरी में दिव्य पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पूज्य आचार्य श्री देवेंद्र मुनि जी महाराज साहब पर तेरस और तीज दोनों का मांगलिक योग सहज ही हो गया था। तेरस को आप ने जन्म लिया और तीज को दीक्षा ग्रहण की यह आप श्री के भावी आध्यात्मिक उत्कर्ष का एक सशक्त पूर्व संकेत ही था। धनतेरस के दिन आपका जन्म होने की वजह से आपका नाम धन्नालाल रखा गया। *पितृ वियोग* : विधि के विधान के आगे किसी का भी जोर नहीं है। आपके धर्मशील पिता श्रीमान जीवन सिंह जी बरडिया का देहांत उस समय ही हो गया जब आप मात्र 21 दिन के थे। संग्रहणी जैसी बीमारी से गंभीर रुग्ण हो कर संथारा सहित 28 नवंबर 1931 को आपके पिता का स्वर्गवास हो गया।
*बहन की दीक्षा* : माता श्रीमती तीज कुमारी अपने पुत्र और पुत्री का लालन- पालन धार्मिक संस्कारों के साथ कर रही थी। वह अपने पुत्र और पुत्री को लेकर उदयपुर में विराजित महासती श्री मदनकुंवर जी महाराज तथा महाश्रमणी श्री सोहनकुंवर जी महाराज के दर्शनार्थ जाती रहती थी। इस प्रकार सुंदरी कुंवर और धन्नालाल के मानस में जैन संस्कार प्रफुल्लित हो गए। फलस्वरूप सुंदरी कुंवर ने 12 फरवरी 1938 में गुरूनी महासती श्री सोहन कुंवर जी महाराज के सानिध्य में दीक्षा धारण की। आपको महाश्रमणी साध्वी पुष्पवती जी महाराज नाम दिया गया।
*बालपन और बालक धन्नालाल की बाल क्रीड़ाएं* : विक्रम संवत 1991 कपासन ग्राम में पूज्य आचार्य प्रवर जवाहरलाल जी महाराज विराजित थे। एक दिन महाराज साहब के रिक्त पाट के समीप आपके दादाजी श्रीमान कन्हैयालालजी बरडिया सामायिक साधना में बैठे थे। पाट के समीप ही बच्चे खेल रहे थे। चंचल बालक धन्नालाल अचानक आचार्य प्रवर के उस पाट पर बैठ गए और अपने साथियों को नीचे बिठाकर प्रवचन देने का अभिनय करने लगे ।इस बाल क्रीड़ा को देखकर आचार्य प्रवर तीन वर्षीय बालक धन्नालाल से बड़े प्रभावित हुए बालक के दादाजी से बोले कि – यह बालक दीक्षा ले, तो तुम बाधा मत डालना। उन्होंने पूज्य श्री लाल जी महाराज के इस कथन का उल्लेख भी किया कि बरडिया परिवार से दीक्षा होगी और वह आत्मा आगे चलकर धर्मो – ज्योत करेगा। यह बाल क्रीड़ा सत्य सिद्ध होगी और बालक धन्नालाल भविष्य में जैन समाज के सर्वोच्च पद का अधिकारी हो जाएगा उस समय भला कौन जानता था! बालक धन्नालाल की बाल क्रियाएं भी खेल- खेल में साधु बन जाना, झोली लेकर गोचरी निकल जाना, आदि रहती थी। दीक्षा के भाव जागृत होने के पश्चात आपने भैरो बाबा के समक्ष बोलमा ले ली कि आप विकलांगों को भोजन कराएंगे, एक सौ बकरों को उमरिया करेंगे, और एक सौ दया पलवाएंगे। दीक्षा पूर्व इन वचनों की पूर्ति भी आप श्री ने की। सत्य है कि महापुरुषों के सद्गुण और महानता जन्मजात ही होती है और उनके विकास के लिए अनुकूल परिवेश भी स्वत: ही शुरू हो जाता है। मात्र 7 वर्ष की उम्र में बालक धन्नालाल को पच्चीस बोल और प्रतिक्रमण कंठस्थ याद हो गए थे। *बालक धन्नालाल जी की दीक्षा* : संत सतियोंं के सानिध्य से आपके वैराग्य के भाव गहनतर होते चले गए। जब बाड़मेर जिले के खंडप ग्राम में विक्रम संवत 1997 में महास्थवीर पूज्य श्री ताराचंद जी महाराज और विश्वसंत पूज्यवर्य श्री पुष्कर मुनि जी महाराज का वर्षावास था। आपकी माता जी आपको लेकर स्थानक में उपस्थित हुई और बालक धन्नालाल को दीक्षा प्रदान करने का अनुग्रह किया । खंडप के ही सेठ श्रीरघुनाथजी धनराज जी लुंकड़ ने कई प्रकार के प्रश्न पूछ बालक धन्नालाल की परीक्षा ली और उन्हें दीक्षा योग्य घोषित किया। अंततः खंडप श्री संघ का अनुरोध होने की वजह से विक्रम संवत 1997 फाल्गुन शुक्ल तृतीया 01.03.1941 को महास्थवीर श्री ताराचंद जी महाराज साहब की निश्रा में बालक धन्नालाल को दीक्षा प्रदान की गई और दीक्षा के पश्चात आपका नाम देवेंद्र मुनि रखा गया ।आपको गुरु विश्वसंत पूज्यवर्य श्री पुष्कर मुनि जी महाराज का प्रथम शिष्य भी घोषित किया गया। नव दीक्षित श्री देवेंद्र मुनि जी मात्र 9 वर्ष के थे, पदयात्रा का उन्हें अभ्यास नहीं था। आपके गुरुदेव विश्वसंत पूज्यवर्य श्री पुष्कर मुनि जी महाराज और दादा गुरु दीक्षा प्रदाता महास्थवीर पूज्य श्री ताराचंद जी महाराज ने अपने कंधों पर बिठाकर भी विहार किया। मोकलसर में आप श्री की बड़ी दीक्षा संपन्न हुई, उस मंगल अवसर पर जैन दिवाकर पूज्य गुरुदेव श्री चौथमल जी महाराज साहब अपने शिष्यों के साथ मोकलसर पधारे थे।आपकी बाल्या – वस्था को देखते हुए लोग आपको प्यार से एवंतामुनि कहकर भी पुकारते थे। ( *माताश्री की दीक्षा* : इसके पश्चात ही इसी वर्ष विक्रम संवत 1997 आषाढ़ शुक्ल तृतीया को आपकी माताजी श्रीमती तीज कुमारी जी ने भी महासती श्री सोहन कुंवर जी महाराज के पावन सानिध्य में संयम ग्रहण कर लिया और आपको महासती प्रभावती के नाम से पहचाना जाने लगा। )
*शिक्षा/अध्ययन* :गुरु सानिध्य में बैठकर बाल मुनि श्री देवेंद्र मुनि जी अध्ययन करने लगे। आपकी अत्यंत तीव्र बुद्धि थी जिस भाषा का अध्ययन शुरू किया कुछ ही समय में उसमें प्रवीणता हासिल कर ली। और हिंदी, संस्कृत, प्राकृत, पाली, गुजराती और मराठी भाषाओं के ज्ञाता बन गए। इन भाषाओं पर आपका पूर्ण अधिकार था।आपके द्वारा जैन आगम, वेद, उपनिषद, पिटक, व्याकरण, न्याय (नीति), दर्शन (फिलोसैपी), साहित्य (लिट्रेचर), हिस्ट्री आदि का गहन अध्ययन किया गया।
*कुशल लेखक* : आप एक सिद्ध- हस्त लेखक थे। धर्म और दर्शन आपके प्रिय विषय रहे जिन पर आपने अनेक वृहद ग्रंथ समाज और देश को दिए। ये ग्रंथ पूर्ण रूप से शोध परक अक्षय निधि हैं जो जनसाधारण के साथ- साथ शोध छात्रों के लिए भी उपयोगी है। धर्म और दर्शन के साथ-साथ 9 उपन्यास,14 निबंध,और 21 कहानियां भी आपकी लेखनी से रचे गए। अनेक स्मृति ग्रंथों का संपादन भी आपने सहजता और सरलता से किया। आगमों पर आप द्वारा लिखी गई विशाल भूमिका पढ़कर पाठक चकित हो जाते हैं, और आपके गंभीर ज्ञान की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं। आप जैन और जैनेतर जगत में *श्री देवेंद्र मुनि जी “शास्त्री”* के नाम से पहचाने जाने लगे।
*बुक्स/ ग्रंथ लिखे गए /प्रकाशित*: कर्म विज्ञान (भाग 1से 9)/ जैन नीति शास्त्र/ भगवान महावीर एक अनुशीलन/ अरिष्टनेमी कर्मयोगी श्री कृष्ण, भारतीय वांग्मय में नारी/ विक्रमादित्य की गौरव गाथा आदि, (लगभग 400 बुक्स)
*संपादन*:(बुक्स एंड पिरियोडिकलस संपादित) जैन धर्म का मौलिक इतिहास – जयपुर से प्रकाशित। 32 आगम – ब्यावर से प्रकाशित, जैन कथा (भाग 1 To 111) – तारक गुरु जैनग्रंथालय,उदयपुर से प्रकाशित), उत्तराध्ययन सूत्र (लेखक: डॉ. राजेंद्र मुनि) और अन्य कई जीवनी (मासिक अंक) जयपुर से प्रकाशित। *प्रकाशन* : हिंदी,अंग्रेजी,प्राकृत, संस्कृत, व गुजराती । *ज्ञान और आचार का सुमेल* :बिना आचार के ज्ञान पंगु है, इस सत्य – सत्य के आप ज्ञाता थे। इसलिए आप वही कहते और लिखते थे जिसमें आप अपने आचार के स्वर देते थे। आपकी संयमनिष्ठा अद्भुत थी। संयम को जीना और उसी का प्रचार- प्रसार करना आपके जीवन का मूल मंत्र था। *उपाचार्य पद* : श्रमण संघ के द्वितीय पट्टधर आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषि जी महाराज का ध्यान भी धर्म तत्व के दृष्टा और रचनात्मक व्यक्तित्व के धनी आप श्री की ओर आकर्षित हुआ आचार्य सम्राट के गहन एवं सूक्ष्म निरीक्षण – परीक्षण में आप श्री की गतिविधियों, – प्रवृत्तियों, – व्यक्तित्व, प्रभाव एवं उपलब्धियों को सर्वोपरि एवं उत्कृष्ट स्थान प्राप्त हुआ। आचार्य सम्राट ने मानवीय भावना निर्मित कर ली थी कि- देवेंद्र मुनि जी ही मेरे उत्तराधिकारी होने की यथार्थ और समुचित पात्रता रखते हैं। पुणे संत सम्मेलन में आचार्य सम्राट श्री आनंद ऋषि जी महाराज सा. ने श्रमण संघ के समस्त पदाधिकारियों तथा प्रमुख साधु – साध्वियों ,श्रावक – श्राविकाओं, एवम चतुर्वेद संघ से परामर्श कर 12 मई 1987 को घोषित किया कि *श्री देवेंद्र मुनि श्री को श्रमण संघ का उपाचार्य* मनोनीत किया जाता है स्वयं आचार्य सम्राट श्री ने उपाचार्य पद की चादर भी उड़ाई ।
*आचार्य पद* :आचार्य भगवन श्री आनंद ऋषि महाराज के स्वर्गवास के पश्चात श्रमण संघ की मर्यादा के अनुसार आप उपाचार्य से आचार्य पद पर दिनांक 15 मई 1992 , अक्षय तृतीया, विक्रम संवत 2041 सोजत, मारवाड़ (राजस्थान) में प्रतिष्ठित हुए। इसके लिए वरिष्ठ श्रावकों ने उदयपुर नगर (राज.) में एक महाआयोजन किया। 28 मार्च 1993 के दिन समायोजित इस समारोह में सैकड़ों साधु – साध्वियों और लाखों श्रावक – श्राविकाओं की उपस्थिति में आपको आचार्य पद की गरिमा, महिमा और सम्मान की चादर प्रदान की गई। उदयपुर नगरी को अपने एक महान सपूत परम श्रद्धेय श्री आचार्य श्री देवेंद्र मुनि जी का अभिनंदन करने का अवसर प्राप्त हुआ *चहुंमुखी विकास* : आपके शासन काल में श्रमणसंघ ने चहुंमुखी विकास किया। आपने स्थान- स्थान पर स्वाध्याय केंद्रों की स्थापना की और अपनी प्रभाव प्रेरणा से समाज को नई दिशा प्रदान की। अनेक क्षेत्रों में चल रहे विवादों को अपने हल किया। वस्तुत: आपका प्रभाव ही ऐसा था कि सब आपके सम्मुख नतमस्तक हो जाते थे।
*संस्थाएं* :
1. श्री तारक गुरु जैन ग्रंथालय, उदयपुर – 1966
2. श्री पुष्कर गुरु चिकित्सालय, किशनगढ़ – 1982
3. श्री पुष्कर गुरु महाविद्यालय, सेमटल – 1989
*इंस्पायर्ड / एस्टेब्लिश्ड फैकल्टी एंड अवॉर्ड*
1. डिपार्टमेंट ऑफ जैनोलॉजी पुणे यूनिवर्सिटी (महाराष्ट्र), 1975
2. गोल्ड मेडल अवार्ड हिंदी, पुणे यूनिवर्सिटी, (महाराष्ट्र)
कुल चातुर्मास 58
दीक्षित साधु / साध्वी 54 *मंगल यात्राएं* : आपने जनमंगल हेतु राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, पंजाब, हिमाचल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश आदि प्रांत की यात्रा की और आपके चरण रज पाकर धन्य हुए।
*स्टेट गेस्ट ऑनर्स* – मध्य प्रदेश सरकार : 1998 एवम महाराष्ट्र सरकार : 1999
*प्रमुख मार्गदर्शक* : विश्व हिंदू परिषद,नईदिल्ली -1989
*महाप्रयाण /स्वर्गारोहण* : वैशाख शुक्ल ग्यारस, विक्रम संवत 2056 (26 अप्रैल 1999) को घाटकोपर मुंबई में प्रातः 8:30 बजे पूर्ण समाधि भाव से संलेखना संथारे सहित आपने इस नश्वर देव का विसर्जन किया। देह से मिटकर भी आप जन – जन के ह्रदय में अमर बन गए। आप अपने गुणों के रूप में सदा – सदा इस भूतल पर अमर रहेंगे।
*स्मारक स्थल* : जैनाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि शिक्षण एवं चिकित्सा शोध संस्थान ट्रस्ट, ” देवेन्द्र धाम ” मॉडर्न कॉम्प्लेक्स, एन. एच. न. 8, उदयपुर, राजस्थान।
आपके जन्म जयंती के पावन अवसर पर सादर नमन 🙏, वंदन🙏 ,हार्दिक अभिनंदन 🙏के साथ यह भावना भाते है कि आपका आशीर्वाद और कृपा संघ, समाज और परिवार पर सदैव बरसता रहे, इन्हीं शुभ मंगल कामनाओं के साथ ।
प्रस्तुति : सुरेन्द्र मारू , इन्दौर