उदयपुर। दीपावली की रौनक देखनी हो तो आप शहरों में जाओ और होली की रौनक देखनी हो तो गांवों में। यह सच है कि देश—प्रदेश के गांव—देहातों में होली की कई ऐसी परंपराएं आयोजित होती है जिनको देखना हर किसी के लिए रोमांचक होता है।
बांसवाड़ा जिले के बड़ोदिया कस्बे में होली पर एक ऐसी ही शादी की परंपरा का आयोजन होता है जिसमें दूल्हा भी लड़का होता है और दुल्हन भी लड़का। यह आश्चर्यजनक परंतु सत्य है। यह शादी वास्तविक शादी न होकर मात्र एक परंपरा का निर्वहन ही होती है। कई वर्षों से पुरखों की परंपरा के रूप में आज भी उसी सम्मान और श्रद्धाभाव से संपादित की जा रही इस रस्म का जीवंत नजारा होली पर इस बांसवाड़ा जिलान्तर्गत निंबाहेड़ा दोहद राजमार्ग पर स्थित बड़ोदिया गांव में होली की पूर्व रात्रि को देखा जा सकता है।
सैकड़ों वर्ष पुरानी परम्परा, लोकल भाषा में कहते हैं गेरिया
होली के प्रहसन खेल रूप में यह परम्परा सैकड़ों साल से की जा रही है। इस परम्परा के तहत चौदस की रात्रि को गॉंव के मुखिया के नेतृत्व में युवाओं का एक समूह जिसे स्थानीय बोली वागड़ी में ‘गेरिया’ कहा जाता है। जिसमें ऐसे दो अविवाहित बालकों को खोजने निकलता है जिनका कि यज्ञोपवित संस्कार न हुआ हो। जन मान्यताओं के चलते ऐसा जरूरी है कि सम्मिलित बालक न तो विवाहित हो न ही यज्ञोपवीतधारी हो।
गेरियों की जाती खोज, गांव के बच्चे घरों से निकलने से डरते हैं
रात्रि में ढोल की थाप के साथ नाचते गाते गेरियों का यह समूह शादी योग्य दो बालकों को ढूंढने के उद्देश्य से सारे गॉंव की सैर करता हैं। गेरियों की इस खोज में भूले—भटके रास्ते में घूमता जो भी बालक पहले मिलता है, उसे ही गेरीयों का यह दल पकड़ कर गांव के मध्य स्थित लक्ष्मीनारायण मंदिर चौक पर पूर्व से स्थापित किये गए विवाह मण्डप पर लाता है। खोज प्रक्रिया में पहले मिलने वाले बालक को वर व बाद में मिलने वाले बालक को वधू घोषित किया जाता है। यहां पर शादी हेतु मण्डप स्थापित किया जाता है और पण्डित जो कि इन्हीं गेरियों मे सम्मिलित एक व्यक्ति होता है के साथ वर-वधु के साथ मण्डप में बैठाकर शादी की सम्पूर्ण रस्में अदा की जाती है। मण्डप में हवन वेदिका भी होती है और दूल्हा-दुल्हन के फेरे भी। इस दौरान उपस्थित गैरिये ढोल-तासों की संगत के साथ शादी-ब्याह के गीत गाते है व मौज मस्ती करते हैं।
रात भर चली शादी की प्रक्रिया, सुबह बैलगाड़ी से निकाला जाता है बिनौला
शादी की यह रस्म अदायगी सारी रात चलती है और तडक़े वर-वधू बने दोनों बालकों को बैलगाड़ी में बैठाकर गॉंव भर में बिनौला यानी उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। बिनौले को देखने के लिये ग्रामीणजन भी उत्साहित दिखाई पड़ते है। बिनौले की रस्म दौरान शादी में सम्मिलित होने वाले सभी लोग बारी-बारी से वर-वधू बने बालकों के घर पहुॅंचते हैं व शादी की खुशी की मिठाई रूप में शक्कर अथवा नारीयल की चटख का प्रसाद ग्रहण करते है।
आनंद के साथ निभाते रस्म, कोई विरोध नहीं
मजे की बात तो यह हैं कि इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में वर-वधू बने बालक भी इस क्रिया का प्रतिकार न करते हुए इस प्रहसन का आनन्द लेते है। सामजिक बंधनों में बंधे ग्रामीण जन भी समाज के नियमों के कारण इसका विरोध नहीं करते है। नियम है कि जो भी इस प्रकार की परम्परा का विरोध करता है, उसके घर गांव के पंच ढूंढ की पापड़ी बनाने नहीं जायेंगे व उसके साथ गांव का पंचायती व्यवहार बंद कर दिया जायेगा ।