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सरकार व डॉक्टरों की अड़ाअड़ी में कीमत चुका रहा बेबस लाचार आम आदमी-मन की बात

क्यों दरकी भरोसे की डोर, पीड़ित जिंदगी की सुनवाई नहीं किसी और

बात मन की- निलेश कांठेड़

सरकार हो या डॉक्टर दोनों पक्ष अपनी-अपनी बात पर अड़े है और शतरंजी बाजी में शह और मात के खेल में जुटे है। विभिन्न रोग जनित पीड़ा के कारण तड़प रही बेबस जिंदगी को बचाने की परवाह शायद ही किसी को लगती है। *मुंछ की लड़ाई बना चुकी राजस्थान सरकार एवं उसके मंत्री ढिंढोरा पीट रहे है चाहे कुछ भी हो जाए राइट टू हैल्थ(आरटीएच) अधिनियम वापस नहीं लेंगे भले प्राइवेट डॉक्टर हड़ताल करते रहे। वहीं जीवन बचाने वाले होने के कारण धरती पर भगवान का दूसरा रूप समझे जाने वाले डॉक्टर इस बार सरकार पर कतई भरोसा करने को तैयार नहीं है।* राजस्थान सरकार भले रोज मीडिया के माध्यम से आरटीएच के गुण गिनाते हुए उसे तर्कसंगत बताते हुए प्राइवेट अस्पतालों के डॉक्टरों से काम पर लौट आने की अपील कर रही है वहीं हड़ताली डॉक्टर इसे बिलकुल सिरे से खारिज करते हुए पूरी तरह वापिस लेने की मांग पर अड़े हुए है। *अड़ाअड़ी के इस खेल में जीत-हार किसकी होंगी या मैच ड्रॉ हो जाएंगा ये तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन यह बिल्कुल तय है कि इसकी सबसे महंगी कीमत वह आम आदमी चुका रहा है जिसके परिवारवाले इस समय किसी हादसे या रोग के कारण दर्द से तड़फ रहे है और उनकी देखभाल करने वाले डॉक्टर नहीं मिल रहे या सरकारी अस्पतालों में भी घंटों इन्तजार के बाद भी डॉक्टरी उपचार नसीब नहीं हो पा रहा।* हम पीछे नहीं हटेंगे के राग अलापने वाले राज्य सरकार के मंत्रियों व अधिकारियों को भी समझना चाहिए कि हड़ताल करने वाले कोई सामान्य कर्मचारी नहीं बल्कि वो डॉक्टर है जो जीवनरक्षक कहलाते है। उनकी सुनवाई नहीं करोंगे और *किसी की जिंदगी खतरे में पड़ेगी तो इसकी भरपाई कौन करेगा इसका जवाब सरकारी हुक्मरानों के पास भी नहीं है।* बस मरीज के हित की दुहाई देकर काम पर लौट आने की अपील से काम नहीं चलने वाला, *सरकार के मुखिया को स्वयं वार्ता की टेबल पर आकर हड़ताल पर डटे डॉक्टरों से वार्ता की पहल करनी चाहिए और उन्हें ये विश्वास दिलाना चाहिए कि आरटीएच के कारण ऐसा कुछ भी नहीं होगा जो उनके कार्य में बाधक साबित होगा* । आरटीएच के प्रावधानों को लेकर प्राइवेट अस्पतालों व चिकित्सकों की जो भी शकांए ओर पुर्नभरण से जुड़े सवाल है उनका ठोस समाधान सरकार को करना होगा। निजी अस्पतालों द्वारा अनावश्यक रूप से होने वाले आर्थिक शोषण का कतई समर्थन नहीं है लेकिन ऐसा डर का माहौल भी हित में नहीं है कि निजी अस्पताल वाले पीड़ित रोगी को हाथ लगाने से ही कतराए और सरकारी अस्पताल में भिजवाएं। एक धारणा ये भी है कि हड़ताल कर रहे डॉक्टरों के साथ जनसमर्थन अधिक नहीं होने से भी सरकार पीछे हटने के मुड में नहीं है। *कभी रोगी के भगवान कहे जाने वाले डॉक्टरों को भी इस हालात पर आत्ममंथन अवश्य करना चाहिए कि उनके पेशे में ऐसी क्या गिरावट आई है कि लोग अब उन्हें भगवान की बजाय व्यवसायी अधिक मानने लगे है।* इसमें कोई संदेह नहीं कि चिकित्सक को भी अपने पेश से आय अर्जित करने का अधिकार है लेकिन इसकी आड़ में जांच व उपचार के नाम पर मनमानी वसूली की बढ़ती शिकायतों से उनकी स्वच्छ छवि पर आंच आ रही है और रोगी व चिकित्सक के विश्वास का रिश्ता दरक रहा है। *सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि कानून की आड़ में निजी चिकित्सकों व चिकित्सालयों को परेशान करने का कार्य भी खूब हो रहा है।* इस तथ्य से सभी भली भांति परिचित है कि अस्पताल में आने वाले कई रोगी मरणासन्न स्थिति में होते है ऐसे में कई बार लाख प्रयास के बावजूद चिकित्सक उनकी जिंदगी नहीं बचा पाते है। ऐसे में चिकित्सक को दोषी नहीं ठहरा सकते लेकिन इसके बावजूद शव निजी चिकित्सालयों के बाहर रख मनमाना मुआवजा मांगा जाता है और नहीं देने पर हिंसात्मक रास्ता भी अपना दबाव बनाया जाता है। सरकार को ऐसे मामलों में नाजायज मुआवजा देने का दबाव बनाने वालों पर कार्रवाई करनी चाहिए। *निजी चिकित्सकों के हितों की रक्षा करने के साथ ये भी सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी पीड़ित के साथ नाइंसाफी नहीं हो और चिकित्सकीय लापरवाही साबित हो तो पीड़ित को पर्याप्त मुआवजा मिले।* फिलहाल तो चिकित्सक हो या सरकार सभी के लिए पहली प्राथमिकता तड़फ रही जिंदगी को राहत देने की होनी चाहिए जो डॉक्टर नहीं मिलने से खतरे में है। चिकित्सक सरकार से अपने हितों की रक्षा की लड़ाई अवश्य लड़े लेकिन इसकी कीमत निरीह आमजन को नहीं चुकानी पड़े ऐसा मार्ग खोजना होंगा। सरकार को भी इस मामले को अपनी प्रतिष्ठा की लड़ाई न बनाकर समझोते का रास्ता तत्काल तलाशना होंगा। *हितों की इस लड़ाई में लाचार व बेहाल एक भी पीड़ित जिंदगी दुनिया से विदा हो गई तो उसकी कीमत कौन चुकाएगा इसका जवाब भी दोनों पक्षों को देना होगा।*

स्वतंत्र पत्रकार एवं विश्लेषक, भीलवाड़ा
पूर्व चीफ रिपोर्टर, राजस्थान पत्रिका

RISHABH JAIN
Author: RISHABH JAIN

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